Sunday 14 November 2010

मेरी माँ













मेरी माँ
मुझे आज भी याद है
आँखें जैसे प्रेम का पर्याय
उसकी मुस्कराहट के सामने
दुनिया की हर खुबसूरत चीज़ कम ही नज़र आती
उसकी हर छुअन प्रेम की चाशनी से सराबोर
मेरे अन्दर के इंसान को प्रेम की परिभाषा समझाती
मैं उसकी गोद में  लेटा
एकटक उसे ही देखता
जैसे वो सारा प्रेम
वो सारा स्पर्श
वो सारी अनुभूति
मैं ही पा जाना चाहता था.
जो मैंने उस वक़्त महसूस किया
बयां नहीं कर सकता.
जो प्रेम उसने मुझे दिया है
उसका कोई पर्याय नहीं.
लेकिन प्रकृति के नियमों से बंधा नवजात शिशु
कह नहीं सका कि मुझे अपनी माँ से प्यार है
जीवन के हर परेशानियों से लडती हुई
उसकी आँखें थक गयी हैं.
अब वो युवती नहीं रही.
उसकी आँखें अब कमजोर हो गयी हैं.
उसके शरीर पे उम्र का राक्षस हावी हो गया है.
मेरे ह्रदय में कई तरह के सवाल उठते  हैं.
क्या में उस कल्पवृक्ष को खो दूंगा
जो कभी मुझे अपनी  छाँव में लोरीयाँ गा कर
चैन की नींद सुलाता था, 
क्या वो उँगलियाँ अब हमेशा के लिए मुझसे छिन जायेंगी
जिन्हें पकड़ कर मैंने ज़िन्दगी के हर कठिन रास्ते को आसानी से पार किया ?
क्या वो ममता और निस्वार्थ प्रेम भरी आँखें हमेशा के लिए बंद हो जाएँगी?
वो आलिंगन जिसने धरती पर कभी मेरा स्वागत किया था
क्या मैं बिछड़ जाऊंगा?
आह! ये वेदना मुझसे अब बर्दाश्त नहीं होती.
माँ ने ज़िन्दगी के लगभग हर मोड़ पर मेरा साथ दिया.
कभी बुरे से लड़ने की ताकत दी
तो कभी अच्छा करने पर होले होले मेरे बालों को सहला कर मेरा उत्साह बढाया.
लोग आये  मेरी ज़िन्दगी में
अपना किरदार निभा कर चले गए
माँ ने कभी मुझे अपने से अलग नहीं होने दिया.
अपनी दुआ, ममता और प्रेम की दवा से मेरा साथ दिया.
माँ, ये शब्द ही ऐसा  है
हर इंसान चाहे वो छोटा हो या बड़ा
अमीर हो या गरीब
ताकतवर हो या कमजोर
इस शब्द से भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ है
मैं भी जुड़ा हूँ
मेरा तो पहला आखरी प्रेम मेरी माँ है
आज वो वृक्ष
जिसने कभी अपने छाँव तले मुझे जीवन के सूर्यताप से बचाया
उस वृक्ष का एक बीज मेरे अन्दर मौजूद है
जो हमेशा मुझे इस बात की प्रेरणा देता है
कि स्वयं को एक विशाल वृक्ष बनाओ
इतना विशाल
न चाहते हुए भी इंसान जीवन के ताप से बचने के लिए
तुम्हारे छाँव मैं चैन के दो पल गुजार सके
अपनी माँ की इस प्रेरणा का
मैं जीवन पर्यन्त अनुशरण करूँ
शायद इससे अच्छा उपहार
मेरी माँ के लिए कुछ न होगा.

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