रात का एक टुकड़ा हूँ मैं,
जो सुबह होने से डरता है।
लोग कहते हैं — “समय सब बदल देता है,”
पर मेरा वक़्त तो ठहरा हुआ लगता है।
कमरे में सब कुछ है,
सिवाय किसी के होने के एहसास के।
घड़ी टिक-टिक करती है,
जैसे मेरा दर्द गिनती जा रही हो साँस के साथ के।
कभी आवाज़ देता हूँ अपने नाम को,
शायद कोई जवाब दे दे।
पर लौटकर सिर्फ़ दीवारें बोलती हैं,
और वो भी मेरी तरह थकी हुई लगती हैं।
कभी-कभी सोचता हूँ,
क्या मैं सच में ज़िंदा हूँ,
या बस चल रहा हूँ —
जैसे सूखी पत्तियाँ हवा के साथ चलती हैं… बिना मक़सद।
पर आज, इस ख़ामोशी में,
एक हल्की सी धुन सुनाई दी —
शायद मेरे भीतर का कोई कोना
अब भी ज़िंदा है, अब भी रोशनी माँगता है।
शायद अकेलापन सज़ा नहीं,
बस एक रास्ता है भीतर उतरने का,
जहाँ मैं खुद को फिर से पा सकूँ,
अपने ही सन्नाटे में नया अर्थ खोज सकूँ।
अब समझ आया —
अकेलापन भी कभी-कभी दुआ बन जाता है,
जब हम उसमें खुद से मिलना सीख लेते हैं।
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