स्मृति की छाया
रजनी की निस्तब्ध नीरवता में,
एक गंध सी बह चली पुरानी।
हृदय के तट पर लहरें उठीं,
जैसे स्मृतियों की गूँज कहानी।
ओस भरे वन में मंद समीर,
कुछ कहता था अनजाने में।
कुंजों में झिलमिल दीप समान,
तेरा रूप था स्वप्न पुराने में।
देखा था मैंने उस क्षण तुझे,
जब चंद्र किरण ने नभ छुआ।
वह दृष्टि बनी मेरी साधना,
जिसने जीवन का अर्थ रचा।
वेदना की वीणा
क्यों मन रोता, क्या पा न सका?
क्या पथ में फूल न बिखरे थे?
या सपनों की छाया भरम,
अश्रु बन नयनों से झरे थे?
प्रीति का दीपक जलता रहा,
प्राण-प्रसून ने हार बुनी।
किन्तु समय की कठोर लहर ने,
सब स्मृतियाँ भी साथ चुनी।
फिर भी कहीं कुछ शेष रहा,
जो आँसुओं में रूप धर गया।
वह गीत अनगाया, अधूरा-सा,
अब निशा में नाद कर गया।
पुकार
वन-वीथि में फिर चली पवन,
जैसे तेरी पायल झंकारे।
नील गगन के तारक कहें —
"वह कहाँ है, जो मन सँवारे?"
फूलों से झरते आँसू-से,
ओस के कण हृदय छू जाते।
पत्तों में तेरे पग-चिह्न हैं,
जो अब भी मुझको बुलाते।
धरती, अम्बर, नदियाँ, बादल,
सब तेरा ही रूप बनाते हैं।
और मैं, इस निस्तब्ध रजनी में,
तेरा नाम जपते जाते हैं।
साक्षात्कार
मैं खोजता था तुझको बाहर,
तू तो मुझमें ही थी छिपी।
जग की नीरवता ने कहा —
"सत्य तेरे ही हृदय में निपी।"
वह ज्योति जो तुझमें दिखती थी,
वह आत्मा की थी आभा।
वेदना ने जब परदा खोला,
प्रकट हुआ जीवन का दावा।
अब न तृष्णा, न मोह शेष,
न कोई प्रश्न, न उत्तर हैं।
तू मैं हूँ, मैं तू ही हूँ,
दोनों एक ही अन्तर हैं।
अमर आलोक
चंद्र किरण मुस्काई नभ में,
फिर ज्योति भरी सब ओर।
आँसू बनकर बहे जो क्षण,
अब बने प्रफुल्लित कोर।
जीवन के हर दुख-सागर में,
तेरा ही प्रतिबिंब मिला।
वेदना बनी वाणी मेरी,
और प्रेम — मेरा एकिला।
अब “निशीथ का नाद” अमर होगा,
हर हृदय में वह गूँज उठेगा।
जहाँ आँसू हैं, वहाँ प्रेम है,
जहाँ तुझमें मैं — वहीं जीवन जगेगा।
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