Tuesday 3 April 2012

तुम तुम थे हम हम थे



तुम तुम थे हम हम थे
अहलादों की अविरल धारा में
निज को ही, निज धागे से
हर ओर पिरोया करते थे
तुम तुम थे हम हम थे !

होंठों पर से शब्दों की आहट से
दिल में सैलाब सा उठता था
बंद जुबा के अनकहे लफ्ज
बिन कहे ही समझे जाते थे
तुम तुम थे हम हम थे !

सागर की घटाओं में खोकर
मन में आकाश सा उठता था
विस्वाश के नीले आँचल में
तारो को पिरोया करते थे
तुम तुम थे हम हम थे !
 
वह प्रणय काल की अभिलाषा
वह मौन नयन की अविभाषा
बूंदों के सागर में अक्सर
रिम झिम को संजोया करते थे
तुम तुम थे हम हम थे !

5 comments:

  1. होंठों पर से शब्दों की आहट से
    दिल में सैलाब सा उठता था
    बंद जुबा के अनकहे लफ्ज
    बिन कहे ही समझे जाते थे
    तुम तुम थे हम हम थे !

    'और आज तो कह के भी
    समझ नहीं आते हैं लफ्ज़
    अब न वो तुम रहे
    और अब वो न रहे हम....'
    ...........................सुन्दर...

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  2. सार्थक सृजन, आभार.

    कृपया मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" की नयी पोस्ट पर भी पधारें

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  3. आज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया....बहुत बेहतरीन प्रस्‍तुति...!

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  4. सागर की घटाओं में खोकर
    मन में आकाश सा उठता था
    विस्वाश के नीले आँचल में
    तारो को पिरोया करते थे
    तुम तुम थे हम हम थे !

    बहुत सुंदर...

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