तुम तुम थे हम हम थे
अहलादों की अविरल धारा में
निज को ही, निज धागे से
हर ओर पिरोया करते थे
तुम तुम थे हम हम थे !
होंठों पर से शब्दों की आहट से
दिल में सैलाब सा उठता था
बंद जुबा के अनकहे लफ्ज
बिन कहे ही समझे जाते थे
तुम तुम थे हम हम थे !
सागर की घटाओं में खोकर
मन में आकाश सा उठता था
विस्वाश के नीले आँचल में
तारो को पिरोया करते थे
तुम तुम थे हम हम थे !
वह मौन नयन की अविभाषा
बूंदों के सागर में अक्सर
रिम झिम को संजोया करते थे
तुम तुम थे हम हम थे !
होंठों पर से शब्दों की आहट से
ReplyDeleteदिल में सैलाब सा उठता था
बंद जुबा के अनकहे लफ्ज
बिन कहे ही समझे जाते थे
तुम तुम थे हम हम थे !
'और आज तो कह के भी
समझ नहीं आते हैं लफ्ज़
अब न वो तुम रहे
और अब वो न रहे हम....'
...........................सुन्दर...
सार्थक सृजन, आभार.
ReplyDeleteकृपया मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" की नयी पोस्ट पर भी पधारें
thanks punam ji aur s.n. shukla sahab...
ReplyDeleteआज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया....बहुत बेहतरीन प्रस्तुति...!
ReplyDeleteसागर की घटाओं में खोकर
ReplyDeleteमन में आकाश सा उठता था
विस्वाश के नीले आँचल में
तारो को पिरोया करते थे
तुम तुम थे हम हम थे !
बहुत सुंदर...