Saturday, 18 October 2025

सृष्टि पुनरुत्थान


अध्याय 1 — विनाश का आभास

अँधेरा छाया है नभ के चारों ओर,

सृष्टि थर्राती है, काँपती है,

और मनुष्य देखता है अनंत प्रश्न।

सूरज की लालिमा फीकी पड़ती है,

नदियाँ सूख रही हैं, हवाएँ निरंतर रो रही हैं।

पत्तियाँ झूलती हैं, वृक्ष बिलखते हैं,

और पृथ्वी अपने गर्भ में दुखों की धारा बहाती है।


मनुष्य पूछता है—

“क्यों हो रहा यह विनाश? क्या यह अंत है?”

और हवा फुसफुसाती है—

“यह केवल संक्रमण है,

नष्ट होने से पूर्व पुनर्जन्म का बीज अंकुरित होता है।”



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अध्याय 2 — अंधकार का राज्य


रात लंबी और ठंडी है,

अंतरिक्ष में अनगिनत तारे सो रहे हैं।

समुद्र उठता है, तूफान की भाँति,

वृक्ष अपनी जड़ों से छूटते हैं,

और पर्वत चुपचाप टूटते हैं।


मनुष्य डरता है, और हृदय कांपता है,

पर भीतर की आवाज़ कहती है—

“अंधकार भी केवल मार्ग है,

जो प्रकाश को तैयार करता है।”


विनाश का हर रूप

एक परीक्षा है,

सत्य और असत्य, धर्म और अधर्म,

प्रकृति और मानव,

सभी मिलकर जीवन के भीतर नया बीज छुपाते हैं।



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अध्याय 3 — पुनरुत्थान की चेतना


तभी एक हल्की रौशनी उभरती है,

जैसे दीपक की लौ अँधेरे में।

मनुष्य देखता है —

पृथ्वी हरे रंग में लौट रही है,

नदियाँ फिर बहने लगी हैं,

फूल खिल रहे हैं, पक्षियों की चहचहाहट गूंज रही है।


विनाश के बीच भी

बीज अंकुरित हो रहा था।

संघर्ष के अँधकार में भी

प्रेम, चेतना और साहस जीवित रहे।


मनुष्य समझता है —

सृष्टि नष्ट नहीं होती,

बल्कि रूपांतरित होती है।

हर अंत, हर दुःख, हर विघटन

सिर्फ़ नए आरंभ का मार्ग बनाता है।



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अध्याय 4 — संघर्ष और शाश्वत नियम


प्रकृति का नियम कठोर है,

पर न्याय और संतुलन से भरा।

विनाश और पुनरुत्थान

दो किनारे हैं एक नदी के।


मनुष्य अपने कर्मों का बोध करता है,

और देखता है—

विनाश केवल दहकता हुआ अग्नि नहीं,

यह अनुभूति और चेतना की परीक्षा है।


संघर्ष हर जीवन में आता है,

और वही शक्ति देता है

नए जीवन, नए मार्ग और नई आशा का।



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अध्याय 5 — प्रेम और पुनर्जन्म


प्रेम केवल जीवों के बीच नहीं,

बल्कि प्रकृति और ब्रह्मांड के बीच भी है।

जैसे सूरज की रौशनी

धरा पर जीवन लाती है,

वैसे प्रेम भी विनाश के बाद

सृजन और पुनरुत्थान की ऊर्जा बन जाता है।


मनुष्य देखता है—

हर मृत्यु में जीवन अंकुरित होता है,

हर टूटने में जोड़ने की क्षमता है,

और हर अंधकार में प्रकाश का बीज छिपा है।



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अध्याय 6 — चेतना और दर्शन


सृष्टि का पुनरुत्थान केवल बाहरी रूप में नहीं,

यह आत्मा की गहन चेतना में भी होता है।

मनुष्य, प्रकृति और ब्रह्मांड

एक ही प्रवाह में बहते हैं।


विनाश और निर्माण, दुःख और आनंद,

सपने और यथार्थ—

सभी मिलकर ब्रह्मांड की कविता बनाते हैं।

और मनुष्य समझता है—

सत्य, प्रेम, कर्म, और धैर्य

सभी मिलकर अनंत चक्र रचते हैं।



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अध्याय 7 — अनंत यात्रा और पूर्णता


सूर्य उदित होता है, प्रकाश फैलता है,

सभी जीवन नए रंगों में नहाते हैं।

सृष्टि पुनः पूर्ण होती है,

अंतरिक्ष, पृथ्वी और आत्मा

सब मिलकर गूंजते हैं—

“अविनाशी है यह यात्रा,

अविनाशी है यह प्रेम,

अविनाशी है यह चेतना।”


मनुष्य अब केवल देखता नहीं,

वह अनुभव करता है, जानता है,

और अनंत के साथ जुड़ जाता है।

विनाश और पुनरुत्थान,

प्रेम और संघर्ष,

सभी मिलकर जीवन और ब्रह्मांड की महाकाव्य कविता बनाते हैं।

प्रेम एक मिथक

अध्याय 1 — प्रस्थान


संध्या की लालिमा फैली है नभ में,

और हृदय की नीरस गुफा में दीपक जलता है।

प्रेम की लौ कोमल,

यादों की धुंध में खोई।

सन्नाटा पुकारता है — “तू अकेला है,”

पर भीतर की गहराई मुस्कुराती है —

“तू कभी अकेला नहीं, पर पूरा भी नहीं।”


मनुष्य कदम बढ़ाता है पथ पर,

जहाँ हर लहर, हर पत्ता,

उसके भीतर छिपे वियोग को छूता है।



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अध्याय 2 — प्रेम का अलाप


प्रीतम, तू मेरी आँखों में बसता है,

जैसे नभ में चाँद का प्रतिबिंब।

तेरी मुस्कान, मेरे भीतर

अनंत गीत गाती है।

फूलों की पंखुड़ी, हवा का झोंका,

संगीत बनकर मन के तारों को छेड़ता है।


वसंत की हवाओं में तेरा नाम बहता है,

प्रेम की मधुरता जीवन की पूर्णता कहती है।

मन कहता है — “तू मेरी आराध्य, तू मेरी पूजा।”



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अध्याय 3 — वियोग की छाया


पर सूर्य डूबता है,

और वियोग की ठंडी छाया आती है।

मन कांपता है, हर धड़कन सवाल करती है —

“क्यों दूर हो, क्यों खो गया है?”


रात की चादर तानकर,

तारे गुनगुनाते हैं पुरानी यादें।

हर सितारा तेरी आँखों का प्रतिबिंब,

हर मंद प्रकाश मेरी पीड़ा।

मैं, इस छायामय संसार में,

तुम्हारे बिना तुम्हें खोजता हूँ,

तुम्हारे साथ भी खुद से दूर हूँ।



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अध्याय 4 — प्रकृति और प्रतीक


पेड़, नदियाँ, पर्वत, और हवा—

सब कुछ मेरे भीतर उतरता है।

हर पत्ता, हर लहर

मुझे याद दिलाता है कि प्रेम और वियोग जीवन के रंग हैं।


सागर की गहराई में तेरा रूप चमकता है,

वृक्षों की शाखाएँ मेरे दर्द को सहलाती हैं।

प्रकृति का हर रूप मुझे आत्मा की ओर खींचता है,

जहाँ अकेलापन भी प्रेम का संदेश बन जाता है।



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अध्याय 5 — संघर्ष और आत्मा


मनुष्य गिरता है, उठता है,

और अपने भीतर खोजता है।

हर आँसू, हर हँसी, कर्म और समय का प्रतिबिंब।

प्रेम की मिठास, वियोग की ठंडक,

दोनों मिलकर आत्मा को जगाते हैं।

मन कहता है — “मैं अकेला नहीं,”

हृदय फुसफुसाता है — “मैं अकेला ही पूरा हूँ।”



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अध्याय 6 — मुक्ति की झिलमिलाहट


सूरज उगता है, प्रकाश फैलता है।

वियोग की छाया मार्गदर्शक बन जाती है,

प्रेम की लौ दीपक बन जाती है।


मनुष्य समझता है — जीवन केवल समय नहीं,

यह अनुभव, प्रेम, संघर्ष और वियोग का संगम है।

हर क्षण, हर धड़कन,

एक गीत बन जाती है,

और गीत आत्मा का प्रकाश।



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अध्याय 7 — अनंतता


प्रेम और वियोग, सुख और दुःख,

छाया और प्रकाश,

सभी मिलकर जीवन की कविता बनाते हैं।


मनुष्य अब केवल जीता नहीं,

बल्कि महसूस करता है, जानता है,

और आत्मा के साथ एक हो जाता है।

छाया के भीतर भी प्रकाश है,

अकेलेपन के भीतर भी साथ है,

और हर अंत के भीतर नई शुरुआत छिपी है।


जीवन, प्रेम, वियोग —

तीनों का संगम ही कविता है,

और कविता ही आत्मा की वास्तविकता।

प्रेम और वियोग

 

अध्याय 1 — सन्नाटा और प्रस्थान


संध्या की लालिमा में, दूर क्षितिज की ओर,

हृदय की नीरस गुफा में दीपक जलता है।

प्रेम की लौ कोमल,

और यादों की धुंध में खोई।


सन्नाटा कहता है — “तू अकेला है,”

पर भीतर की गहराई मुस्कुराती है,

“तू कभी अकेला नहीं, पर पूरा भी नहीं।”

मनुष्य कदम बढ़ाता है पथ पर,

जहाँ हर लहर, हर पत्ता,

उसके भीतर छिपे वियोग को छूता है।


अध्याय 2 — प्रेम का अलाप


प्रीतम, तू मेरी आँखों में बसता है,

जैसे नभ में चाँद का प्रतिबिंब।

तेरी मुस्कान, मेरे भीतर

अनंत गीत गाती है,

और हर स्पर्श,

मन के तारों को झंकृत करता है।


वसंत की हवाओं में तेरा नाम बहता है,

फूलों की हर पंखुड़ी तुझसे बातें करती है।

प्रेम की मधुरता, जीवन की पूर्णता,

और मन कहता है —

“तू ही मेरी आराध्य, तू ही मेरी पूजा।”


अध्याय 3 — वियोग का धुँधला छाया


पर सूर्य डूबता है,

और वियोग की ठंडी छाया आती है।

मन हिलता है, काँपता है,

हर धड़कन सवाल करती है —

“क्यों दूर हो, क्यों खो गया है?”


रात की चादर तानकर,

तारे गुनगुनाते हैं पुरानी यादें।

हर सितारा तेरी आँखों का प्रतिबिंब है,

हर मंद प्रकाश मेरी पीड़ा।

और मैं, इस छायामय संसार में,

तुम्हारे बिना भी तुम्हें खोजता हूँ,

तुम्हारे साथ भी खुद से दूर हूँ।


अध्याय 4 — प्रकृति और प्रतीक


पेड़, नदियाँ, पर्वत, और हवा—

सब कुछ मेरे भीतर उतरता है।

हर पत्ता, हर लहर,

मुझे याद दिलाता है

कि प्रेम और वियोग दोनों ही जीवन के रंग हैं।


सागर की गहराई में तेरा रूप चमकता है,

वृक्षों की शाखाएँ मेरे दर्द को सहलाती हैं।

प्रकृति का हर रूप

मुझे आत्मा की ओर खींचता है,

जहाँ अकेलापन भी प्रेम का संदेश बन जाता है।


अध्याय 5 — संघर्ष और आत्मा का बोध


मनुष्य गिरता है, उठता है,

और अपने भीतर खोजता है।

हर आँसू, हर हँसी,

कर्म और समय का प्रतिबिंब है।


प्रेम की मिठास, वियोग की ठंडक,

दोनों मिलकर आत्मा को जगाते हैं।

मन कहता है—“मैं अकेला नहीं,”

और हृदय फुसफुसाता है—“मैं अकेला ही पूरा हूँ।”


अध्याय 6 — मुक्ति की झिलमिलाहट


सूरज उगता है, और प्रकाश फैलता है।

वियोग की छाया अब केवल मार्गदर्शक है,

प्रेम की लौ दीपक बन जाती है।


मनुष्य समझता है — जीवन केवल समय नहीं,

यह अनुभव, प्रेम, संघर्ष और वियोग का संगम है।

हर क्षण, हर धड़कन,

एक गीत बन जाती है,

और गीत आत्मा का प्रकाश।


अध्याय 7 — अंतर्दृष्टि और अनंत


प्रेम और वियोग, सुख और दुःख,

छाया और प्रकाश,

सभी मिलकर जीवन की कविता बनाते हैं।


मनुष्य अब केवल जीता नहीं,

बल्कि महसूस करता है, जानता है,

और आत्मा के साथ एक हो जाता है।

छाया के भीतर भी प्रकाश है,

अकेलेपन के भीतर भी साथ है,

और हर अंत के भीतर नई शुरुआत छिपी है।


जीवन, प्रेम, वियोग—

तीनों का संगम ही कविता है,

और कविता ही आत्मा की वास्तविकता।

जीवन का सप्तक

 


अध्याय 1 – प्रस्थान (जीवन का प्रारंभ)


सूरज की पहली किरण से जागती है आत्मा,

सन्नाटे में गूँजती है अनकही पुकार।

मनुष्य अपने पथ पर चलता है,

कदमों में उत्साह, आँखों में प्रश्न,

और हृदय में अनंत आशा।

हर साँस कहती है — “तू यहाँ है, और तेरा मार्ग अभी शुरू हुआ है।”


अध्याय 2 – प्रकृति और प्रतीक


पत्तियों की सरसराहट, नदियों की धारा,

और आकाश की असीम छाया में

मनुष्य देखता है अपने भीतर का प्रतिबिंब।

प्रकृति के हर रूप में, हर रंग में

छिपा है उसका अस्तित्व,

और हर तितली, हर पत्ते की नर्मी

एक मौन संवाद बन जाती है।


अध्याय 3 – प्रेम और आकांक्षा


प्रेम आता है, अप्रत्याशित,

जैसे पहाड़ों की गूंज या सागर की लहर।

कभी मीठा संगीत बनकर,

कभी कांटों की छुअन देकर।

यह केवल भावना नहीं,

बल्कि आत्मा का जागरण है।

प्रेम में मिलता है जीवन का अर्थ,

और हर धड़कन में खुलता है असीम संसार।


अध्याय 4 – दुःख और अकेलापन


रात के अंधेरे में,

अकेलापन हृदय को थाम लेता है।

आँसू, निराशा, और वीरानी

मनुष्य को उसकी सीमाओं का बोध कराते हैं।

पर उसी सन्नाटे में,

एक हल्की आवाज़ भी गूँजती है —

“तू अकेला नहीं, तू केवल अपने भीतर के प्रकाश से मिला नहीं।”


अध्याय 5 – संघर्ष और परीक्षा


जीवन देता है चुनौतियाँ,

कभी तीखे काँटे, कभी कठोर मार्ग।

मनुष्य लड़ता है, गिरता है, उठता है,

और हर बार अपने भीतर की शक्ति को पहचानता है।

संघर्ष केवल शारीरिक नहीं,

यह आत्मा का शोधन है,

जो ज्ञान, साहस और विवेक से सशक्त होता है।


अध्याय 6 – आत्मा का बोध


जब सारी भूलें, सारे भ्रम मिट जाते हैं,

मनुष्य अपनी आत्मा के पास पहुँचता है।

वह समझता है — जीवन, प्रेम, दुःख, संघर्ष,

सब एक ही धारा के अलग रूप हैं।

छाया के भीतर भी प्रकाश है,

अँधेरे के भीतर भी उजाला है,

और अकेलापन भी केवल आत्मा की खोज का माध्यम है।


अध्याय 7 – मुक्ति और अनंतता


अंत में, जीवन स्वयं को पूर्णता में पाता है।

प्रेम, संघर्ष, दुःख, और आनंद

सब मिलकर एक गीत बन जाते हैं —

एक गीत जो कहता है:

“तू जीवन है, तू प्रेम है, तू अनंत है।”

मनुष्य अब केवल जीता नहीं,

बल्कि महसूस करता है, जानता है, और आत्मा के साथ मेल खाता है।

यही है जीवन का अंतिम रहस्य —

अनंत यात्रा, जिसमें हर क्षण प्रकाश, छाया और प्रेम का संगम है।

जीवन की छाया और प्रकाश

सन्नाटा मेरे चारों ओर फैला है,

जैसे रात ने अपने आँचल में सब कुछ छुपा लिया हो।

मन मेरा बहता है अनजानी नदियों की तरह,

जहाँ हर लहर का स्पर्श मुझे मेरे भीतर खींच लेता है।


हवाओं की हल्की सरसराहट में

मैं सुनता हूँ अपनी आत्मा की पुकार।

कभी वह मीठा संगीत लगता है,

कभी कांटों की खुरखुराहट।

और मैं समझता हूँ — यही ज़िंदगी है,

सुख और दुःख के बीच झूलती,

एक अनंत संतुलन।


प्रकृति की हर छाया मेरे भीतर उतरती है,

पत्तियों की हर हिलती धार में,

नदियों की हर बूँद में,

सूरज की हर किरण में।

मन मेरा पूछता है—

“क्या मैं अकेला हूँ?”

और पेड़ों की सरसराहट हँसकर कहती है—

“तू कभी अकेला नहीं, तू बस अपनी पहचान भूल गया है।”


प्रेम, वही सदा अस्पष्ट और अनंत,

जैसे धुंध में चमकता कोई दीपक।

कभी मुझे उसके पास खींचता है,

कभी उसकी अनुपस्थिति में कांपने देता है।

लेकिन प्रेम ही तो है जो जीवन को अर्थ देता है,

जो हर क्षण को उजागर करता है,

जो आत्मा को अपने आप से मिलाता है।


रात के बाद सुबह आती है,

लेकिन सुबह केवल प्रकाश नहीं लाती,

बल्कि प्रश्न, संघर्ष और उम्मीद भी लेकर आती है।

ज़िंदगी केवल गुजरने वाला समय नहीं,

यह तो एक पथ है —

जो भीतर की अनंत गहराई में ले जाता है।


मैं चलता हूँ उस पथ पर,

कदमों में थकावट, हृदय में संदेह,

आँखों में सपना और हाथों में खालीपन।

लेकिन हर कदम मुझे मेरी आत्मा की ओर ले जाता है,

जहाँ अकेलापन भी स्नेह की तरह महसूस होता है,

और हर आँसू भी प्रेम का अंग बन जाता है।


अँधेरा और प्रकाश, खुशी और दुःख,

सब मिलकर जीवन की कविता रचते हैं।

एक कविता जिसमें हर श्वास, हर धड़कन,

एक गीत बन जाती है —

गीत जो कहता है:

“तू जीवन है, तू प्रेम है, तू अनंत है।”


और मैं समझता हूँ—

ज़िंदगी केवल जीने का नाम नहीं,

यह आत्मा को खोजने का, प्रेम को पहचानने का,

और हर पल अपने भीतर की गहराई में उतरने का नाम है।

क्योंकि जब हम भीतर झाँकते हैं,

तब ही पता चलता है—

छाया के भीतर भी प्रकाश है,

अकेलेपन के भीतर भी साथ है,

और हर समाप्ति के भीतर नई शुरुआत छुपी है।

"जीवन का प्रवाह"

 "जीवन का प्रवाह"


हवाओं में बिखरी ठंडी साँसों की तरह,

ज़िंदगी आती है, बहती है, और चली जाती है।

कभी मुस्कान की तरह हल्की,

कभी आँसुओं की तरह भारी,

और हर मोड़ पर छोड़ जाती है प्रश्नों का साया।


पथिक हूँ मैं इस संसार के वीरान रास्तों पर,

जहाँ पेड़ों की पत्तियों में छुपा है रहस्य,

और नदियों की गहरी धारा में प्रतिबिंबित है समय।

मन मेरा काँपता है,

कभी सुख की ओस में भीगकर,

कभी अकेलेपन की छाँव में थककर।


हृदय की कोमल धड़कन कहती है —

“प्रेम ही है जीवन का सच्चा गीत।”

लेकिन प्रेम भी कहीं खो जाता है,

जैसे धुंध में गुम होती रौशनी,

और आत्मा, बस अपने सन्नाटे में घूमती रहती है।


सांझ के रंग घुलते हैं आकाश में,

और मैं देखता हूँ—

हर लालिमा, हर नीला छाया,

मेरी उम्मीदों और डर का चित्र बना रहा है।

ज़िंदगी केवल सुख-दुःख का मेल नहीं,

बल्कि हर क्षण एक चेतना का उद्घोष है,

जो कहता है—“तुम अपनी सीमाओं से परे हो।”


कभी लगता है, मैं अकेला हूँ इस दुनिया में,

फिर एक चिड़िया की किलकारियाँ सुनाई देती हैं,

और मेरे भीतर की तन्हाई गुनगुनाती है—

“तू भी प्रकृति का हिस्सा है, तू भी अनंत है।”


अँधेरा भी अपनी चमक लेकर आता है,

और मैं समझता हूँ—

जीवन में दर्द, विरह और संघर्ष केवल रास्ते हैं,

न कि अंत।

वे हमें भीतर ले जाते हैं,

जहाँ हम अपने असली स्वरूप से मिलते हैं,

जहाँ हमारी आत्मा, प्रेम और अनुभव का संगम बन जाती है।


तो मैं चलता हूँ, धीमे कदमों से,

हर धड़कन को महसूस करता हूँ,

हर आँसू में सीख पाता हूँ,

और हर मुस्कान में जीवन की खुशबू।

क्योंकि यही है ज़िंदगी—

छायाओं में झूलती, प्रकाश की ओर बढ़ती,

एक अनंत यात्रा,

जिसमें प्रेम, दुःख, अकेलापन और स्नेह

साथ-साथ चलते हैं।

"ज़िंदगी और प्रेम"

 


ज़िंदगी जैसे बहती नदी,

कभी शांत, कभी उफनती लहरों जैसी।

और प्रेम…

वो वो किनारा है, जहाँ मैं थमकर देख पाता हूँ,

कि हर बहाव में भी कोई स्थिरता है।


ज़िंदगी हमें छोड़कर नहीं जाती,

बस हमें रास्तों पर आज़माती है।

और प्रेम…

वो हाथ है जो पकड़कर कहता है —

“डर मत, मैं साथ हूँ।”


कभी ख़ुशियों की बारिश होती है,

कभी आँसुओं की धारा बहती है।

पर प्रेम…

वो धूप है जो बारिश के बाद भी चमकती है,

और ज़िंदगी को गर्माहट देता है।


जब प्रेम साथ हो,

तो हर पल की धड़कन संगीत बन जाती है।

और ज़िंदगी…

वो कविता बन जाती है,

जिसका हर शब्द तुझसे ही जुड़ा होता है।


ज़िंदगी और प्रेम —

दोनों एक-दूसरे में बँधे हैं,

एक बिना दूसरे के अधूरी है,

और जब साथ हों, तो हर सांस एक चमत्कार बन जाती है। ✨

"मैं और मेरा सन्नाटा"

 


रात का एक टुकड़ा हूँ मैं,

जो सुबह होने से डरता है।

लोग कहते हैं — “समय सब बदल देता है,”

पर मेरा वक़्त तो ठहरा हुआ लगता है।


कमरे में सब कुछ है,

सिवाय किसी के होने के एहसास के।

घड़ी टिक-टिक करती है,

जैसे मेरा दर्द गिनती जा रही हो साँस के साथ के।


कभी आवाज़ देता हूँ अपने नाम को,

शायद कोई जवाब दे दे।

पर लौटकर सिर्फ़ दीवारें बोलती हैं,

और वो भी मेरी तरह थकी हुई लगती हैं।


कभी-कभी सोचता हूँ,

क्या मैं सच में ज़िंदा हूँ,

या बस चल रहा हूँ —

जैसे सूखी पत्तियाँ हवा के साथ चलती हैं… बिना मक़सद।


पर आज, इस ख़ामोशी में,

एक हल्की सी धुन सुनाई दी —

शायद मेरे भीतर का कोई कोना

अब भी ज़िंदा है, अब भी रोशनी माँगता है।


शायद अकेलापन सज़ा नहीं,

बस एक रास्ता है भीतर उतरने का,

जहाँ मैं खुद को फिर से पा सकूँ,

अपने ही सन्नाटे में नया अर्थ खोज सकूँ।


अब समझ आया —

अकेलापन भी कभी-कभी दुआ बन जाता है,

जब हम उसमें खुद से मिलना सीख लेते हैं। 


प्रेम – जो ईश्वर का स्वर है"

 


मैंने तुझमें खुद को देखा,

तो जाना — ये चेहरा तेरा नहीं, मेरा भी है।

तू अलग नहीं, वही अनंत प्रकाश है,

जिसकी लौ मेरे भीतर भी जलती है।


प्रेम कोई बंधन नहीं,

ये तो मुक्ति का द्वार है,

जहाँ "मैं" और "तू" मिट जाते हैं,

और बस एक “हम” शेष रह जाता है।


तू मेरा आराध्य नहीं,

तू तो मेरा प्रतिबिंब है,

तेरे चरणों में झुकता हूँ इसलिए नहीं

कि तू ऊँची है —

बल्कि इसलिए कि वहाँ मेरा अस्तित्व झलकता है।


कभी सोचा था प्रेम किसी के मिलने से होता है,

अब जाना — प्रेम तो तब होता है

जब कोई “किसी” भी नहीं रह जाता,

सिर्फ़ “अस्तित्व” रह जाता है।


हर धड़कन में जो नाम गूँजता है,

वो तेरे होने का नहीं —

उस एक सच्चाई का है,

जिसे तू और मैं मिलकर कहते हैं — "प्रेम"।


प्रेम— जो मैं हूँ, जो तू है


प्यार क्या है, ये कोई शब्द नहीं,

ये वो मौन है जहाँ सब कुछ कहा जाता है।

जहाँ दो आत्माएँ मिलकर ये भूल जाती हैं,

कि कौन मैं हूँ, और कौन तू है।


कभी लगता है, तू मुझमें समाई है,

जैसे नदी अपने सागर में खो जाती है।

तेरा होना अब मेरा होना है,

और मेरा वजूद तुझसे ही बन पाता है।


हम दोनों अलग नहीं,

बस दो छवियाँ हैं एक ही रोशनी की।

जैसे सूरज और उसकी किरणें,

अलग होकर भी एक-दूसरे में जीती हैं।


कभी-कभी सोचता हूँ,

शायद प्यार सिर्फ़ साथ होना नहीं,

बल्कि उस वक़्त का नाम है

जब तेरे बिना भी तू मेरे भीतर ज़िंदा रहती है।


प्यार शरीरों का मिलन नहीं,

ये आत्माओं का संवाद है,

जहाँ शब्द नहीं चलते,

बस मौन अपना अर्थ बाँटता है।